कक्षा 10 जीव विज्ञान अध्याय 1: जैव प्रक्रम : पोषण नोट्स । Class 10 Biology Chapter 1 Notes in Hindi Pdf

कक्षा 10 के जीव विज्ञान के पहले अध्याय जैव प्रक्रम पोषण में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में कक्षा 10 जीव विज्ञान अध्याय 1: जैव प्रक्रम : पोषण नोट्स (Class 10 Biology Chapter 1 Notes) दिए गए हैं जो कक्षा 10 के सभी छात्रों के एग्जाम के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह नोट साहब के एग्जाम के लिए कामगार होंगे। 

 

कक्षा 10 जीव विज्ञान अध्याय 1: जैव प्रक्रम : पोषण (Life Processes:Nutrition) नोट्स । Class 10 Biology Chapter 1 Notes in Hindi Pdf

कक्षा 10 के जीव विज्ञान के पहले अध्याय जैव प्रक्रम पोषण में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में कक्षा 10 जीव विज्ञान अध्याय 1: जैव प्रक्रम : पोषण नोट्स (Class 10 Biology Chapter 1 Notes) दिए गए हैं जो कक्षा 10 के सभी छात्रों के एग्जाम के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यह नोट साहब के एग्जाम के लिए कामगार होंगे।  

कक्षा 10 जीव विज्ञान अध्याय 1: जैव प्रक्रम : पोषण । Class 10 Biology Chapter 1 Notes 
जैव प्रक्रम : पोषण
परिभाषा:- जीवों का संरक्षण करने वाली सभी क्रियाएं "जैव प्रक्रम" कहलाती हैं।

पोषण (Nutrition) :
पोषण एक विधि है जिसके द्वारा हम जीवों को पोषित करने के लिए उनके शरीर में महत्वपूर्ण तत्वों को लेते हैं। पोषण कहलाता है ।

पोषण की विधियाँ:
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता है. -

(i) स्वपोषण (Autotrophic Nutrition)

(ii) परपोषण (Heterotrophic Nutrition )

(i) स्वपोषण: स्वपोषण का अर्थ है वो पोषण जिसमें जीव स्वयं अपने भोजन को प्राप्त करते हैं और दूसरे जीवों पर निर्भर नहीं रहते। स्वपोषी जीव इसे कहलाते हैं। सभी हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।

(ii) परपोषण: परपोषण का अर्थ है वो पोषण जिसमें जीव अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं और उनसे अपने भोजन को प्राप्त करते हैं। इसे परपोषी जीव कहते हैं।

परपोषण के प्रकार :- 
परपोषण मुख्य रूप से तिन प्रकार के होते हैं -

1. मृतजीवी पोषण (Saprophytic Nutrition) :-

इस प्रकार के पोषण में जीव अपना भोजन मृत जानवरों और पौधों के शरीर से प्राप्त करते हैं। वे शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों को अवशोषित करते हैं। 

इस तरह के पोषण करने वाले जीव को मृतजीवी कहा जाता है। कवक, बैक्टीरिया और कुछ प्रोटोजोआ इस प्रकार के पोषण करते हैं। 

2. परजीवी पोषण (Parasitic Nutrition) :- 

इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इस प्रकार के पोषण करने वाले जीव को परजीवी कहा जाता है। उनके भोजन करने के लिए वे किसी मुख्य जीव के शरीर से आहार प्राप्त करते हैं। इसे होस्ट (पोषी) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, गोलाकृमि, हुक्वार्म, टेपवर्म, हिस्टोलिटिका आदि इस प्रकार के पोषण करते हैं।

3. प्राणीसम पोषण: 

यह पोषण विधि है जिसमें जीव ठोस या तरल रूप में अन्य जीवों के भोजन को ग्रहण करते हैं। इसे प्राणीसम पोषण कहा जाता है। वे जीव जिन्हें इस तरीके से पोषण मिलता हैं, उन्हें प्राणीसम्भोजी कहा जाता है।

पौधों में पोषण
पोषण के आधार पर उन पौधों को स्वपोषी कहा जाता है जो अपना भोजन खुद बनाते हैं। यह स्पष्ट है कि इन पौधों में प्रकाशसंश्लेषण की क्षमता होती है, जिससे वे प्रकाशसंश्लेषण के द्वारा अपना भोजन बनाते हैं।

प्रकाशसंश्लेषण क्या होता है?
प्रकाशसंश्लेषण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा पौधे अपना भोजन तैयार करते हैं। इसमें पौधों की पर्णहरित (क्लोरोफिल) होती है, जिसमें सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता होती है।

संपूर्ण प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया को हम निम्नलिखित रासायनिक समीकरण द्वारा व्यक्त करते हैं-

6CO2 + 12H2O + पप्रकाश क्लोरोफिल C6H12O6+ 602 + 6H 20

प्रकाशसंश्लेषण का स्थान 
प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया क्लोरोप्लास्ट में ही होती है, जहां क्लोरोफिल वर्णकों को पाया जाता है। क्योंकि ये अधिकांशतः पौधों की पत्तियों में होते हैं, इसलिए पत्तियाँ प्रकाशसंश्लेषक अंग कहलाती हैं और हरितलवक को प्रकाशसंश्लेषक अंगक कहते हैं।

पत्तियों की बाहरी त्वचा में रंध्र (स्टोमेटा) होते हैं, जिसमें एक छिद्र होता है जो खुलता और बंद हो सकता है। इन छिद्रों के माध्यम से हवामंडल से CO2 पत्तियों के अंदर पहुंचता है।

प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया के लिए आवश्यक पदार्थ (घटक) 
प्रकाशसंश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती है. 

1. पर्णहरित या क्लोरोफिल

2. कार्बन डाइऑक्साइड

3. जल

4. सूर्य प्रकाश

1. पर्णहरित या क्लोरोफिल: प्रकाशसंश्लेषण - प्रक्रिया केवल क्लोरोफिल की मौजूदगी में ही होती है। क्योंकि क्लोरोफिल ही वह सच्ची यूनिट है जिससे प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया होती है, इसलिए क्लोरोफिल अणुओं को प्रकाशसंश्लेषी इकाई कहा जाता है।

2. कार्बन डाइऑक्साइड: प्रकाशसंश्लेषण में पौधे कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से प्राप्त करते हैं।

3. जल: पौधे अपने भोजन का अधिकांश हिस्सा जल से प्राप्त करते हैं और जल ही कारण होती हैं जिसके कारण उनमें विरोधी घटक होती है। यह प्रकाशसंश्लेषण के लिए एक आवश्यक तत्व है।

4. सूर्य प्रकाश: हरे पौधे केवल सूर्य के प्रकाश में ही कार्बन-डाइऑक्साइड को शुद्ध करते हैं। अंधेरे में प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया संपन्न नहीं हो सकती।

प्रकाशसंश्लेषण की क्रियाविधि 
प्रकाशसंश्लेषण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें हरे पौधे विकिरण ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। जब सूर्य का प्रकाश हरी पत्तियों पर पड़ता है, तब क्लोरोफिल विकिरण ऊर्जा को अवशोषित करता है और इस ऊर्जा के माध्यम से हरी पत्तियों में मौजूद जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित कर देता है।

जंतुओं में पोषण
जंतुओं के भोजन के लिए वे पूरी तरह से अन्य जीवों पर निर्भर होते हैं, जिसे हम परपोषी कहते हैं। इनकी परछाईयां हैं। परपोषी जीव, मृतजीवी, परजीवी या प्राणीसम्भोजी हो सकते हैं। → विभिन्न प्रकार के प्राणीसम्भोजी जीवों में भोजन का अंतर्ग्रहण विभिन्न तरीकों से होता है।

अमीबा
यह एक सरल प्राणीसम्भोजी जीव है, जो एककोशिकीय और अनिश्चित आकार का होता है। इसका आकार कूटपादों के बदलने के कारण बदलता रहता है। इसके शारीर में भोजन के लिए कोई विशेष संरचविशेष संरचना नहीं होती है। अमीबा अपना भोजन कूटपादों की मदद से ही ग्रहण करती है।

अमीबा में भोजन का अंतर्ग्रहण, पाचन और उसे बहार निकालने की प्रक्रिया के द्वारा पूर्ण होता है।

पैरामिशियम
पैरामिशियम एक एककोशिकीय प्राणीसम्भोजी जीव होता है, लेकिन इसका आकार निश्चित होता है और इसके शरीर को सीलिया नामक प्रचलनांगन से ढंका जाता है। पैरामिशियम में भोजन को एक निश्चित स्थान से अंतर्ग्रहण किया जाता है, जिसे मुखगुहा कहा जाता है।

मनुष्य का पाचनतंत्र
मनुष्य और सभी उच्च श्रेणी के जीवों में भोजन को पाचन करने के लिए विशेष अंग होते हैं, जिन्हें आहारनाल कहा जाता है। आहारनाल के साथ कुछ पाचक ग्रंथियां होती हैं, जो पाचन के लिए पाचक रस स्रावित करती हैं, जिससे भोजन को पाचन किया जा सकता है।

• आहारनाल, पाचक ग्रंथियों और पाचन क्रिया इस प्रक्रिया में मिलकर पाचनतंत्र (पाचन सिस्टम) का निर्माण करते हैं।

मनुष्य का आहारनाल
• यह एक लम्बी रचना है, जिसकी लंबाई लगभग 8 से 10 मीटर होती है। यह मुखगुहा से शुरू होती है और मलद्वार तक फैलती है। आहारनाल के विभिन्न भागों की रचना और उनके कार्य निम्नलिखित हैं -

मुखगुहा: मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है, जो ऊपरी और निचले जबड़ों से घिरी होती है। मुखगुहा को बंद करने के लिए ऊपरी और निचले मांसल होंठ (लिप्स) होते हैं। मुखगुहा में जीभ और दांत होते हैं। 

दांत: मुखगुहा के ऊपरी और निचले जबड़ों पर दांत स्थापित होते हैं। दांत का वह भाग जो मसूड़े में छिपा होता है, उसे जड़ (रूट) कहा जाता है, और जो मसूड़े से ऊपर निकलता है, उसे सिर या शिखर (क्राउन) और मध्य भाग को ग्रीवा या गर्दन (नेक) कहा जाता है।

• दांत चार पारकर के होते हैं :- -

(i) कर्तनक या इनसाइजर (Incisor) (ii) भेदक या कैनाइन (Canine )

(iii) प्रिमोलर (Primolar ) (iv) मोलर (Molar)

> लारग्रंथी:- मनुष्य के मुखगुहा में तिन जोड़ी लार ग्रंथियां पाई जाती है - 

1. पैरोटिड

2. सबमैन्डिबूलर लारग्रंथी

3. सबलिंगुअल लारग्रंथी

> ग्रसनी (Pharynx) :- मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है इसमें दी छिद्र होते है -

(i) निगल्द्वर

(ii) कंठद्वार

कंठद्वार के आगे एक पट्टी की तरह एक रचना होती है जिसे एपिग्लोटिक्स कहा जाता है। जब मनुष्य भोजन करता है, तो यह पट्टी कंठद्वार को ढक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जाता है।

ग्रासनली (ओइसोफेगस) : मुखगुहा से लार से गीला हुआ भोजन निगलने द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भोजन पहुंचते ही ग्रासनली की दीवार में तरंग की तरह संकुचन और शिथिलन होता है, जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं।

आमाशय (स्टोमेक) : यह एक चौड़ी थैली की तरह की रचना है जो उदार गुहा के बाईं और से शुरू होती है और अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।

अमाशय तिन भागों में बंटा होता है।

(i) कार्डिएक (ii) फुनडिक (iii) पाईलोरिक

जठर ग्रंथि (Gastric Gland) 
आमाशय के अंदरी स्तर पर स्तम्भाकार एपिथिलियम कोशिकाएं होती हैं। यह कोशिकाएं जठर ग्रंथि के रस का निर्माण करती हैं।

→ जठर ग्रंथियों की कोशिकाएं तिन प्रकार की होती है - -

(i) श्लेष्मा कोशिकाएं (mucous cells)

(ii) भित्तीय कोशिकाएं (parietal cells) 

(iii) जाइमोजिन कोशिकाएं (zymogen cells)

इन तीनों प्रकार की कोशिकाओं के स्त्राव का संयुक्त रूप में जठर रस (गैस्ट्रिक ज्यूस) कहलाता है।

• जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, श्लेष्मा और निष्क्रिय पेपसिनोजेन पाया जाता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल अम्लजन कोशिकाओं से निकलता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निष्क्रिय पेपसिनोजेन को सक्रिय पेप्सिन नामक एंजाइम में परिवर्तित करता है। पेप्सिन भोजन में पाये जाने वाले प्रोटीन पर कार्य करके उन्हें पेप्टोन में परिवर्तित करता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जीवानुषंगिक के रूप में कार्य करता है और भोजन के साथ आने वाले बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। 

• श्लेष्मा श्लेष्मा कोशिकाओं से निकलता है। श्लेष्मा अमाशय की दीवार और जठर ग्रंथियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और पेप्सिन जैसे एंजाइम से सुरक्षित रखता है।

• अमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन के वसा का पाचन शुरू होता है।  

• गैस्ट्रिक लाइपेस वसा को वसा अम्ल और ग्लिसरोल में बदलता है।

• अमाशय में अब भोजन एक घने लाईक रूप में हो जाता है, जिसे काइम कहा जाता है।

• काइम अमाशय से छोटी आंत में पहुंचता है।

छोटी आँत (Small Intestine)
छोटी आंत आहारनाल का सबसे लंबा भाग एक बेलनाकार होता है, जिसका आकार विभिन्न प्राणियों में भिन्न होता है। मनुष्य में यह लगभग 6 मीटर लंबी और 2.5 सेंटीमीटर चौड़ी होती है।

भिन्न-भिन्न जीवों में इसकी लंबाई अलग-अलग होती है।

→ छोटी आँत तिन भागों में बंटा होता है :-

(i) ग्रहणी (Duodenum)

(ii) जेजुनम (Jejunum) 

(iii) इलियम (Ileum)

• ग्रहणी छोटी आंत का पहला भाग होता है। ग्रहणी में लगभग बीचोंबीच एक छिद्र द्वारा एक नलिका खुलता है। यह नलिका दो भिन्न-भिन्न नलिकाओं के मेल से बनता है। इनमें से एक नलिका अग्न्याशायी वाहिनी होता है और दूसरी नलिका मूल पित्त्वाहिनी होती है। जेजुनम छोटी आंत का मध्य भाग होता है। छोटी आंत का अधिकांश भाग इलियम होता है। इस भाग में भोजन का पाचन समाप्त होता है और पचे हुए भोजन का अवशोषण भी छोटी आंत के इसी भाग में होता है।

• छोटी आंत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशायी रस और आंत्र रस द्वारा होता है जो क्रमशः यकृत, अग्न्याशय और आंत ग्रंथियों के स्राव से होता है। यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका वजन करीब 1.5 किलोग्राम होता है और यह उदार गुहा के दाहिने भाग में स्थित होता है। पित्त यकृत कोशिकाओं से निकलकर यकृत पात्री में जमा होता है।

• पित्त एक गाढ़ा और हरा रंग का क्षारीय द्रव होता है, जिसमें कोई एंजाइम नहीं होता है।

→ पित्त के निम्नलिखित दो कार्य है -

1. पित्त जो पेट के ऊपरी हिस्से से आमाशय में आता है, वह अम्लीय कार्बनिक पदार्थों की अम्लीयता को नष्ट करके उसे क्षारीय बना देता है।

2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन में मौजूद वसा को विभाजित और पायसीकृत किया जाता है।

अग्न्याशय (पैंक्रियस) 
माशय के नीचे स्थित और ग्रहणी को घेरने वाली पीले रंग की एक ग्रंथि होती है, जिसे अग्न्याशय कहा जाता है। अग्न्याशय में कई पतली-पतली नलिकाएं होती हैं जो मिलकर एक बड़ी अग्न्याशयी नली बनाती है।

• अग्न्याशयी रस में ट्रिप्सिन, एमाइलेज, लाइपेज, न्यूक्लियस नामक एंजाइम पाए जाते हैं।

• अग्न्याशयी रस के एंजाइम भोजन के घटकों पर इस तरीके से क्रिया करते हैं - एमाइलेज + स्टार्च एवं ग्लाइकोजेन माल्टोस लाइपेज + इमल्सीकृत वसा अम्ल ग्लीसारोल न्युक्लियेस + न्यूक्लिक एसिड न्युक्लियोटाइड्स।

आँत ग्रंथियां 
• आंत के छोटे भाग में कई ग्रंथियां होती हैं। इनकी माध्यमिका में आंत्र रस बहता होता है।

• आंत्र रस में मौजूद एंजाइम और भोजन के विभिन्न तत्वों पर उनका कार्य इस प्रकार होता है। -

पेप्टाइडेस + पेप्टोन एमोनो अम्ल लाइपेस + बची हुई इमल्सीकृत वसा इमल्सीकृत वसा अम्ल + ग्लीसारोल 
इनवर्टेस + सुक्रोस → ग्लूकोस + फ्रक्टोस
माल्टेस + मलटोस ग्लूकोस + ग्लूकोस
लैक्टेस + लेक्टोस ग्लूकोस + ग्लैक्टोस
न्युक्लियेस + न्यूक्लिक एसिड न्युक्लियोटाइड्स
इस तरह, छोटी आंत में खाद्य पचाने की प्रक्रिया पूर्ण होती है, जिससे खाद्य के जटिल, अविघटनशील अणु सरल, विलयनशील अणु में परिवर्तित हो जाते हैं। इस स्थिति में, काइम भी तरल हो जाता है और इसे "चाइल" कहा जाता है।

• पाचित खाद्य का अवशोषण इलियम के विलाई के द्वारा होता है।

बड़ी आंत (large intestine)
छोटी आंत के आहार नाल के बाद बड़ी आंत में जाती है। बड़ी आंत दो हिस्सों में विभाजित होती है: कोलन और मलाशय।

→ कोलन तिन भागों में बंटा होता है - 

(i) उपरिगामी कोलन

(ii) अनुप्रस्थ कोलन

(iii) अधोगामी कोलन

• अधोगामी कोलन रेक्टम में खुलता है, जो शरीर के बाहर मलद्वार के माध्यम से खुलता है।

• खाद्य सामग्री इलियम से कोलन में से आगे बढ़ते हुए मलाशय तक पहुंचती है। बड़ी आंत के इन भागों में खाद्य सामग्री के अतिरिक्त पानी भी अवशोषित हो जाता है। आखिरकार, खाद्य सामग्री मल के रूप में मलाशय में अस्थायी रूप से संग्रहित रहती है, जहां से नियमित अंतराल पर मलद्वार के माध्यम से शरीर से बाहर निकलती है।

जैव प्रक्रम : पोषण

परिभाषा:- जीवों का संरक्षण करने वाली सभी क्रियाएं “जैव प्रक्रम” कहलाती हैं।

पोषण (Nutrition) :

पोषण एक विधि है जिसके द्वारा हम जीवों को पोषित करने के लिए उनके शरीर में महत्वपूर्ण तत्वों को लेते हैं। पोषण कहलाता है ।

पोषण की विधियाँ:

जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता है. –

(i) स्वपोषण (Autotrophic Nutrition)

(ii) परपोषण (Heterotrophic Nutrition )

(i) स्वपोषण: स्वपोषण का अर्थ है वो पोषण जिसमें जीव स्वयं अपने भोजन को प्राप्त करते हैं और दूसरे जीवों पर निर्भर नहीं रहते। स्वपोषी जीव इसे कहलाते हैं। सभी हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।

(ii) परपोषण: परपोषण का अर्थ है वो पोषण जिसमें जीव अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं और उनसे अपने भोजन को प्राप्त करते हैं। इसे परपोषी जीव कहते हैं।

परपोषण के प्रकार :- 

परपोषण मुख्य रूप से तिन प्रकार के होते हैं –

1. मृतजीवी पोषण (Saprophytic Nutrition) :-

इस प्रकार के पोषण में जीव अपना भोजन मृत जानवरों और पौधों के शरीर से प्राप्त करते हैं। वे शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों को अवशोषित करते हैं। 

इस तरह के पोषण करने वाले जीव को मृतजीवी कहा जाता है। कवक, बैक्टीरिया और कुछ प्रोटोजोआ इस प्रकार के पोषण करते हैं। 

2. परजीवी पोषण (Parasitic Nutrition) :- 

इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इस प्रकार के पोषण करने वाले जीव को परजीवी कहा जाता है। उनके भोजन करने के लिए वे किसी मुख्य जीव के शरीर से आहार प्राप्त करते हैं। इसे होस्ट (पोषी) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, गोलाकृमि, हुक्वार्म, टेपवर्म, हिस्टोलिटिका आदि इस प्रकार के पोषण करते हैं।

3. प्राणीसम पोषण: 

यह पोषण विधि है जिसमें जीव ठोस या तरल रूप में अन्य जीवों के भोजन को ग्रहण करते हैं। इसे प्राणीसम पोषण कहा जाता है। वे जीव जिन्हें इस तरीके से पोषण मिलता हैं, उन्हें प्राणीसम्भोजी कहा जाता है।

पौधों में पोषण

पोषण के आधार पर उन पौधों को स्वपोषी कहा जाता है जो अपना भोजन खुद बनाते हैं। यह स्पष्ट है कि इन पौधों में प्रकाशसंश्लेषण की क्षमता होती है, जिससे वे प्रकाशसंश्लेषण के द्वारा अपना भोजन बनाते हैं।

प्रकाशसंश्लेषण क्या होता है?

प्रकाशसंश्लेषण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा पौधे अपना भोजन तैयार करते हैं। इसमें पौधों की पर्णहरित (क्लोरोफिल) होती है, जिसमें सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता होती है।

संपूर्ण प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया को हम निम्नलिखित रासायनिक समीकरण द्वारा व्यक्त करते हैं-

6CO2 + 12H2O + पप्रकाश क्लोरोफिल C6H12O6+ 602 + 6H 20

प्रकाशसंश्लेषण का स्थान 

प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया क्लोरोप्लास्ट में ही होती है, जहां क्लोरोफिल वर्णकों को पाया जाता है। क्योंकि ये अधिकांशतः पौधों की पत्तियों में होते हैं, इसलिए पत्तियाँ प्रकाशसंश्लेषक अंग कहलाती हैं और हरितलवक को प्रकाशसंश्लेषक अंगक कहते हैं।

पत्तियों की बाहरी त्वचा में रंध्र (स्टोमेटा) होते हैं, जिसमें एक छिद्र होता है जो खुलता और बंद हो सकता है। इन छिद्रों के माध्यम से हवामंडल से CO2 पत्तियों के अंदर पहुंचता है।

प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया के लिए आवश्यक पदार्थ (घटक) 

प्रकाशसंश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती है. 

1. पर्णहरित या क्लोरोफिल

2. कार्बन डाइऑक्साइड

3. जल

4. सूर्य प्रकाश

1. पर्णहरित या क्लोरोफिल: प्रकाशसंश्लेषण – प्रक्रिया केवल क्लोरोफिल की मौजूदगी में ही होती है। क्योंकि क्लोरोफिल ही वह सच्ची यूनिट है जिससे प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया होती है, इसलिए क्लोरोफिल अणुओं को प्रकाशसंश्लेषी इकाई कहा जाता है।

2. कार्बन डाइऑक्साइड: प्रकाशसंश्लेषण में पौधे कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से प्राप्त करते हैं।

3. जल: पौधे अपने भोजन का अधिकांश हिस्सा जल से प्राप्त करते हैं और जल ही कारण होती हैं जिसके कारण उनमें विरोधी घटक होती है। यह प्रकाशसंश्लेषण के लिए एक आवश्यक तत्व है।

4. सूर्य प्रकाश: हरे पौधे केवल सूर्य के प्रकाश में ही कार्बन-डाइऑक्साइड को शुद्ध करते हैं। अंधेरे में प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया संपन्न नहीं हो सकती।

प्रकाशसंश्लेषण की क्रियाविधि 

प्रकाशसंश्लेषण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें हरे पौधे विकिरण ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। जब सूर्य का प्रकाश हरी पत्तियों पर पड़ता है, तब क्लोरोफिल विकिरण ऊर्जा को अवशोषित करता है और इस ऊर्जा के माध्यम से हरी पत्तियों में मौजूद जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित कर देता है।

जंतुओं में पोषण

जंतुओं के भोजन के लिए वे पूरी तरह से अन्य जीवों पर निर्भर होते हैं, जिसे हम परपोषी कहते हैं। इनकी परछाईयां हैं। परपोषी जीव, मृतजीवी, परजीवी या प्राणीसम्भोजी हो सकते हैं। → विभिन्न प्रकार के प्राणीसम्भोजी जीवों में भोजन का अंतर्ग्रहण विभिन्न तरीकों से होता है।

अमीबा

यह एक सरल प्राणीसम्भोजी जीव है, जो एककोशिकीय और अनिश्चित आकार का होता है। इसका आकार कूटपादों के बदलने के कारण बदलता रहता है। इसके शारीर में भोजन के लिए कोई विशेष संरचविशेष संरचना नहीं होती है। अमीबा अपना भोजन कूटपादों की मदद से ही ग्रहण करती है।

अमीबा में भोजन का अंतर्ग्रहण, पाचन और उसे बहार निकालने की प्रक्रिया के द्वारा पूर्ण होता है।

पैरामिशियम

पैरामिशियम एक एककोशिकीय प्राणीसम्भोजी जीव होता है, लेकिन इसका आकार निश्चित होता है और इसके शरीर को सीलिया नामक प्रचलनांगन से ढंका जाता है। पैरामिशियम में भोजन को एक निश्चित स्थान से अंतर्ग्रहण किया जाता है, जिसे मुखगुहा कहा जाता है।

मनुष्य का पाचनतंत्र

मनुष्य और सभी उच्च श्रेणी के जीवों में भोजन को पाचन करने के लिए विशेष अंग होते हैं, जिन्हें आहारनाल कहा जाता है। आहारनाल के साथ कुछ पाचक ग्रंथियां होती हैं, जो पाचन के लिए पाचक रस स्रावित करती हैं, जिससे भोजन को पाचन किया जा सकता है।

• आहारनाल, पाचक ग्रंथियों और पाचन क्रिया इस प्रक्रिया में मिलकर पाचनतंत्र (पाचन सिस्टम) का निर्माण करते हैं।

मनुष्य का आहारनाल

• यह एक लम्बी रचना है, जिसकी लंबाई लगभग 8 से 10 मीटर होती है। यह मुखगुहा से शुरू होती है और मलद्वार तक फैलती है। आहारनाल के विभिन्न भागों की रचना और उनके कार्य निम्नलिखित हैं –

मुखगुहा: मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है, जो ऊपरी और निचले जबड़ों से घिरी होती है। मुखगुहा को बंद करने के लिए ऊपरी और निचले मांसल होंठ (लिप्स) होते हैं। मुखगुहा में जीभ और दांत होते हैं। 

दांत: मुखगुहा के ऊपरी और निचले जबड़ों पर दांत स्थापित होते हैं। दांत का वह भाग जो मसूड़े में छिपा होता है, उसे जड़ (रूट) कहा जाता है, और जो मसूड़े से ऊपर निकलता है, उसे सिर या शिखर (क्राउन) और मध्य भाग को ग्रीवा या गर्दन (नेक) कहा जाता है।

• दांत चार पारकर के होते हैं :- –

(i) कर्तनक या इनसाइजर (Incisor) (ii) भेदक या कैनाइन (Canine )

(iii) प्रिमोलर (Primolar ) (iv) मोलर (Molar)

लारग्रंथी:- मनुष्य के मुखगुहा में तिन जोड़ी लार ग्रंथियां पाई जाती है – 

1. पैरोटिड

2. सबमैन्डिबूलर लारग्रंथी

3. सबलिंगुअल लारग्रंथी

> ग्रसनी (Pharynx) :- मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है इसमें दी छिद्र होते है –

(i) निगल्द्वर

(ii) कंठद्वार

कंठद्वार के आगे एक पट्टी की तरह एक रचना होती है जिसे एपिग्लोटिक्स कहा जाता है। जब मनुष्य भोजन करता है, तो यह पट्टी कंठद्वार को ढक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जाता है।

ग्रासनली (ओइसोफेगस) : मुखगुहा से लार से गीला हुआ भोजन निगलने द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भोजन पहुंचते ही ग्रासनली की दीवार में तरंग की तरह संकुचन और शिथिलन होता है, जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं।

आमाशय (स्टोमेक) : यह एक चौड़ी थैली की तरह की रचना है जो उदार गुहा के बाईं और से शुरू होती है और अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।

अमाशय तिन भागों में बंटा होता है।

(i) कार्डिएक (ii) फुनडिक (iii) पाईलोरिक

जठर ग्रंथि (Gastric Gland) 

आमाशय के अंदरी स्तर पर स्तम्भाकार एपिथिलियम कोशिकाएं होती हैं। यह कोशिकाएं जठर ग्रंथि के रस का निर्माण करती हैं।

→ जठर ग्रंथियों की कोशिकाएं तिन प्रकार की होती है – –

(i) श्लेष्मा कोशिकाएं (mucous cells)

(ii) भित्तीय कोशिकाएं (parietal cells) 

(iii) जाइमोजिन कोशिकाएं (zymogen cells)

इन तीनों प्रकार की कोशिकाओं के स्त्राव का संयुक्त रूप में जठर रस (गैस्ट्रिक ज्यूस) कहलाता है।

• जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, श्लेष्मा और निष्क्रिय पेपसिनोजेन पाया जाता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल अम्लजन कोशिकाओं से निकलता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निष्क्रिय पेपसिनोजेन को सक्रिय पेप्सिन नामक एंजाइम में परिवर्तित करता है। पेप्सिन भोजन में पाये जाने वाले प्रोटीन पर कार्य करके उन्हें पेप्टोन में परिवर्तित करता है।

• हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जीवानुषंगिक के रूप में कार्य करता है और भोजन के साथ आने वाले बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। 

• श्लेष्मा श्लेष्मा कोशिकाओं से निकलता है। श्लेष्मा अमाशय की दीवार और जठर ग्रंथियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और पेप्सिन जैसे एंजाइम से सुरक्षित रखता है।

• अमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन के वसा का पाचन शुरू होता है।  

• गैस्ट्रिक लाइपेस वसा को वसा अम्ल और ग्लिसरोल में बदलता है।

• अमाशय में अब भोजन एक घने लाईक रूप में हो जाता है, जिसे काइम कहा जाता है।

• काइम अमाशय से छोटी आंत में पहुंचता है।

छोटी आँत (Small Intestine)

छोटी आंत आहारनाल का सबसे लंबा भाग एक बेलनाकार होता है, जिसका आकार विभिन्न प्राणियों में भिन्न होता है। मनुष्य में यह लगभग 6 मीटर लंबी और 2.5 सेंटीमीटर चौड़ी होती है।

भिन्न-भिन्न जीवों में इसकी लंबाई अलग-अलग होती है।

→ छोटी आँत तिन भागों में बंटा होता है :-

(i) ग्रहणी (Duodenum)

(ii) जेजुनम (Jejunum) 

(iii) इलियम (Ileum)

• ग्रहणी छोटी आंत का पहला भाग होता है। ग्रहणी में लगभग बीचोंबीच एक छिद्र द्वारा एक नलिका खुलता है। यह नलिका दो भिन्न-भिन्न नलिकाओं के मेल से बनता है। इनमें से एक नलिका अग्न्याशायी वाहिनी होता है और दूसरी नलिका मूल पित्त्वाहिनी होती है। जेजुनम छोटी आंत का मध्य भाग होता है। छोटी आंत का अधिकांश भाग इलियम होता है। इस भाग में भोजन का पाचन समाप्त होता है और पचे हुए भोजन का अवशोषण भी छोटी आंत के इसी भाग में होता है।

• छोटी आंत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशायी रस और आंत्र रस द्वारा होता है जो क्रमशः यकृत, अग्न्याशय और आंत ग्रंथियों के स्राव से होता है। यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका वजन करीब 1.5 किलोग्राम होता है और यह उदार गुहा के दाहिने भाग में स्थित होता है। पित्त यकृत कोशिकाओं से निकलकर यकृत पात्री में जमा होता है।

• पित्त एक गाढ़ा और हरा रंग का क्षारीय द्रव होता है, जिसमें कोई एंजाइम नहीं होता है।

→ पित्त के निम्नलिखित दो कार्य है –

1. पित्त जो पेट के ऊपरी हिस्से से आमाशय में आता है, वह अम्लीय कार्बनिक पदार्थों की अम्लीयता को नष्ट करके उसे क्षारीय बना देता है।

2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन में मौजूद वसा को विभाजित और पायसीकृत किया जाता है।

अग्न्याशय (पैंक्रियस) 

माशय के नीचे स्थित और ग्रहणी को घेरने वाली पीले रंग की एक ग्रंथि होती है, जिसे अग्न्याशय कहा जाता है। अग्न्याशय में कई पतली-पतली नलिकाएं होती हैं जो मिलकर एक बड़ी अग्न्याशयी नली बनाती है।

• अग्न्याशयी रस में ट्रिप्सिन, एमाइलेज, लाइपेज, न्यूक्लियस नामक एंजाइम पाए जाते हैं।

• अग्न्याशयी रस के एंजाइम भोजन के घटकों पर इस तरीके से क्रिया करते हैं – एमाइलेज + स्टार्च एवं ग्लाइकोजेन माल्टोस लाइपेज + इमल्सीकृत वसा अम्ल ग्लीसारोल न्युक्लियेस + न्यूक्लिक एसिड न्युक्लियोटाइड्स।

आँत ग्रंथियां 

• आंत के छोटे भाग में कई ग्रंथियां होती हैं। इनकी माध्यमिका में आंत्र रस बहता होता है।

• आंत्र रस में मौजूद एंजाइम और भोजन के विभिन्न तत्वों पर उनका कार्य इस प्रकार होता है। –

  • पेप्टाइडेस + पेप्टोन एमोनो अम्ल लाइपेस + बची हुई इमल्सीकृत वसा इमल्सीकृत वसा अम्ल + ग्लीसारोल 
  • इनवर्टेस + सुक्रोस → ग्लूकोस + फ्रक्टोस
  • माल्टेस + मलटोस ग्लूकोस + ग्लूकोस
  • लैक्टेस + लेक्टोस ग्लूकोस + ग्लैक्टोस
  • न्युक्लियेस + न्यूक्लिक एसिड न्युक्लियोटाइड्स

इस तरह, छोटी आंत में खाद्य पचाने की प्रक्रिया पूर्ण होती है, जिससे खाद्य के जटिल, अविघटनशील अणु सरल, विलयनशील अणु में परिवर्तित हो जाते हैं। इस स्थिति में, काइम भी तरल हो जाता है और इसे “चाइल” कहा जाता है।

• पाचित खाद्य का अवशोषण इलियम के विलाई के द्वारा होता है।

बड़ी आंत (large intestine)

छोटी आंत के आहार नाल के बाद बड़ी आंत में जाती है। बड़ी आंत दो हिस्सों में विभाजित होती है: कोलन और मलाशय।

→ कोलन तिन भागों में बंटा होता है – 

(i) उपरिगामी कोलन

(ii) अनुप्रस्थ कोलन

(iii) अधोगामी कोलन

• अधोगामी कोलन रेक्टम में खुलता है, जो शरीर के बाहर मलद्वार के माध्यम से खुलता है।

• खाद्य सामग्री इलियम से कोलन में से आगे बढ़ते हुए मलाशय तक पहुंचती है। बड़ी आंत के इन भागों में खाद्य सामग्री के अतिरिक्त पानी भी अवशोषित हो जाता है। आखिरकार, खाद्य सामग्री मल के रूप में मलाशय में अस्थायी रूप से संग्रहित रहती है, जहां से नियमित अंतराल पर मलद्वार के माध्यम से शरीर से बाहर निकलती है।

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