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जातिवाद
जातिवाद का स्वरूप
जाति एक सामाजिक संरचना जो अति प्राचीन काल से ही भारत में प्रचलित है। प्राचीन समय में ही वर्ण व्यवस्था का उद्भव हुआ था, जो कर्म और व्यवसाय पर आधारित थी। कालांतर में यह वर्ण व्यवस्था स्वीकृत होकर जाति व्यवस्था में बदल गई। इसमें कई दोष उत्पन्न होने से यह भेदभाव पूर्ण रूप से पहले जाति प्रथा और वर्तमान में जातिवाद के रूप में विकसित है।
भारत आजद होने के बाद में राजनीति में सत्ता की आकांक्षा ने जातिवाद की मान्यताओं को ओर अधिक बढ़ा दिया।
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जातिवाद |
जाति का अर्थ
जब 1 वर्ष पूर्ण आनुवंशिकता पर आधारित होता है, तो हम उसे जाति कहते हैं। जाती एक ऐसा सामाजिक समूह होता है जो दूसरे से अपने को अलग मानता है, जिसकी अपनी अपनी विशेषताएं होती है। अपनी परिधि में ही व्यवसायिक संबंध करना जिनका परंपरागत व्यवसाय होता है।
जातिवाद (jativad) और जाति संगठन (sanghtan) दबाव समूह के रूप में कार्य करते हैं। तथा जातिवाद (jativad) लोगों में एकता और सामूहिक का की भावना (bhavna) पैदा करती है।
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका
भारतीय (Indian) राजनीति में जाति (jati) की भूमिका को निम्न रूप से देखा जा सकता है
1. निर्णय प्रक्रिया में जाति की भूमिका
भारत में जाति पर आधारित संगठन शासन के निर्णय को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अपने आरक्षण अधिकार की समय सीमा को बढ़ाना चाहते हैं।
कुछ अपने को आरक्षित जातियों की सूची में शामिल करने हेतु प्रयत्नशील है, तथा जिन जातियों को आरक्षण प्राप्त नहीं है वह आरक्षण पाने के लिए प्रयत्नशील है।
2. राजनीतिक दलों में जाति आधार पर प्रत्याशियों का निर्णय
राजनीतिक दल प्रत्याशियों के चयन के समय जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर निर्णय करते हैं। जिस क्षेत्र में जाती की बहुलता हो वहां उसी जाति का प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारा जाता है। सभी राजनीतिक दलों में आंतरिक रूप से भी जातिय आधार पर भी कई गुट पाए जाते हैं।
3.जातिगत व्यवहार पर मतदान व्यवहार
भारत में सभी राजनीतिक दल राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए जातिवाद को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव में जातिवाद का प्रभाव सर्वाधिक रहता है।
4.मंत्रिमंडलो के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व
सभी राजनीतिक दल बहुमत प्राप्त होने पर सरकार के निर्माण के लिए मंत्रिमंडल के निर्माण जातीय संतुलन का ध्यान रखते हुए करते हैं। कहीं बार केंद्र व राज्य के मंत्रिमंडल में जाति विशेष के प्रतिनिधित्व के कम होने की आलोचना होती रहती है।
5.जातिगत दबाव समूह
जातीय संगठन सरकारी व्यवस्था पर दबाव समूह के अन्तर्गत कार्य करते हैं। वे जातीय हितों के विरुध्द होने वाले निर्णयों को रोकने या बढ़ाने हेतु सरकार पर दबाव डालते हैं।
6. जाति एवं प्रशासन
भारतीय व्यवस्था में प्रतिनिधि संस्थाओं के अलावा शासन में भी जातिय आरक्षण की व्यवस्था की गई है। अनुसूचित जाति व जनजाति के अलावा अन्य पिछड़े वर्ग को भी 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है।
वर्तमान में गुजरात, हरियाणा, तथा राजस्थान, में विभिन्न जातिय संघटन के आधार पर आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
7. राज्य राजनीति में जातिवाद
अखिल भारतीय राजनीति के बजाय राज्य की राजनीति में जाति की भूमिका को अधिक बढावा मिल रहा है।
बिहार, यूपी, तमिलनाडु, केरल, और आंध्र प्रदेश राजस्थान आदि की राजनीति का विश्लेषण बिना जातिगत गणित के बिना किया ही नहीं जा सकता।
8. चुनाव प्रचार में जाति का सहारा
राजनीतिक दल व उम्मीदवार चुनाव प्रचार में जाति का खुलकर प्रयोग करते हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल क्षेत्र विशेष में जिस जाति का बहुमत होता है, उसमें उसी जाति के बड़े नेता का चुनाव प्रचार करने के लिए भेजते हैं।
9. जाति के आधार पर राजनीतिक अभिजन का उदय
जो लोग जातीय संगठनों में उच्च पदों पर पहुंच गए हैं, वे राजनीति में भी अच्छे स्थान प्राप्त करने में भी सफल हुए हैं। वह अपनी जाति हितों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देखभाल करते रहते हैं।